Tuesday, February 23, 2010

कहां गये होली के रंग,

समय बदलने के साथ होली का स्वरुप भी बदल गया है. पहले होली का इंतजार होता था. गांवों की होली अदभूत होती थी. धीरे-धीरे होली का मायने ही बदल गया है. अब होली का मतलब केवल हुड़दंग ही रह गया है. नशे की हालत में रा िा के समय दंगा-फसाद, यहां तक की ह याएं तक होना इस यौहार की ाासदी बन गई है. रंग, गुलाल और आबीर गायब है उसकी जगह खून की होली खेली जाती है. होली का रंग अब बदरंग हो चुका है.होली का मजा गांवों में सबसे ज्यादा देखने को आता था. पारंपरिक ढंग से सं या गांव के गौठान में होली के लिए लकडिय़ां एक िात की जाती थी. बकायदा अपने ारोंं से लोग लकड़ी और कंडा लाते थे जिसे पूजा अर्चना कर पूरे गांव की उपस्थिति में सबसे बुजर्ग या मुखिया होली जलाता था. फाग गाये जाते थे. दूसरे दिन रंग उ सव की शुरआत दोपहर बाद होती थी. दोपहर के बाद धुर पार्टी नया कपड़ा पहनकर गाजे बाजे के साथ गांव के मु य स्थान पर एक िात होते थे जहां मादर की थाप पर सभी थिरकते थे और एक दूसरे पर रंग डालकर होली मनाते थे.जिस यौहार में कपड़ा खराब होने की गारंटी हो उसमें भी नये कपड़ों का उपयोग करना ही हमारी परंपरा और संस्कृुति रही है कि तु अब होली की आड़ में शहरों का माहौल ही बिगड़ चुका है. होली का खुमार दो दिन पहले ही चढऩे लगता है. खुमार या शराब का नशा लोगों पर हावी हो जाता है. लगभग यही स्थिति गांवों की भी हो रही है. संभ्रांत परिवार अब न तो होली खेलने में रुचि दिखाता और न ही होलियारा अंदाज ही दिखा पाता है. होली जैसे यौहार की अस्मिता बनाए रखने एक बार फिर इसे मनाने के अंदाज बदलने की जरुरत है

2 comments:

  1. मित्र बहुत अच्छा लेख है। शुभकामनाएं।

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  2. हौसला आफजाई के आपका तहेदिल से शुक्रगुजार हूं.

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