Saturday, February 6, 2010

गांवों की सत्ता पर भी चढ़ा शहरी तामझाम का चोला

भारत में पंचायती राज व्यवस्था को पूरी तरह से लागू कराने का श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को जाता है.इसके पीछे उनकी मंशा राष्ट्रपिता महा मा गांधी के ग्राम स्वराज्य के सपने को साकार करना रहा है.स्व. राजीव गांधी काफी हद तक अपने उद्देश्यों में कामयाब भी रहे कि तु समय बितने के साथ ही पंचायती राज व्यवस्था का स्वरुप भी बिगडऩे लगा. राजनीति में आने का अर्थ समाजसेवा था कि तु अब राजनीति स्वयं को साधन संप न बनाने का सा य बन चुका है.शायद इसीलिए गांव की राजनीति भी संप नता की ईदगिर्द ही घूम रही है. भारत विश्व का सबसे बड़ा प्रजातांत्रिक देश है. इस बात पर हम हमेशा गर्व करते हैं और करते भी रहेंगे कि तु प्रजातंत्र आज पूरी तरह लोभ और लालच के मोहजाल में फंसा हुआ है. शायद इसी कारण सही व्यक्तियों का चुनाव नहीं हो पाता और स ता पर अवसरवादी तथा चुनावी र ा में साम दाम दंड भेद की नीति अपनाने वालों की ही जय हो रही है.छ तीसगढ़ में िास्तरीय पंचायत चुनाव हाल ही में संप न हुआ है. अ य चुनावों के मुकाबले गांव की स ता हथियाने इस बार ज्यादा ही जोर और सं ार्ष परिलक्षित हुआ है. पंचायत प्रतिनिधियों का चुनाव पूरी तरह शहरी चुनाव की तर्ज पर लड़ा गया और कहीं-कहीं तो शहर के चुनावी तामझाम को गांव का माहौल पीछे खदेड़ते दिखाई दिया. प्रचार प्रसार सहित अ य चुनावी हथकंडे किसी भी बड़े चुनाव से कम नहीं था. ाोषित तौर पर पंचायतों का चुनाव दलगत आधार पर नहीं होता कि तु अ ाोषित तौर पर राजनैतिक दलों की पूरी दखलंदाजी इस चुनाव में रहती है.स ताधारी दल और विपक्ष जब आमने सामने हो तो वह सारे उपक्रम किए जाते हैं जो लोकसभा विधानसभा और नगरीय निकाय चुनाव में किए जाते हैं.हर चुनाव में मतदाताओं को अपने पक्ष में करने प्रलोभन का सिलसिला शुरु होता है. बड़े चुनाव में यह क्रम रात के अंधेरे में अथवा गुपचुप तरीके से चलता है कि तु पंचायत चुनाव में तो सबकुछ खुलेआम ही चला है. शराब, साड़ी, कपड़ा, टोपी, झोला,कंबल,बिछिया, सहित अ य सामग्री बांटी गई है. चुनाव चाहे उ"ा स्तर की हो या सबसे नीचे स्तर की. मतदाताओं को आकर्षित करने और उ हें प्रलोभन देकर अपने पक्ष में करने की परंपरा पर अंकुश तो हर हाल में लगना ही चाहिए.चुनाव आयोग निष्पक्ष चुनाव कराने का दावा तो करता है कि तु चुनाव के आड़ में पैसे के जोर में आयोग की निष्पक्षता भी दम तोड़ती नजर आती है.कहने को तो नियम और कानून सभी बने है कि तु कौन नियम मान रहा है और कहां नियमों का पालन हो रहा है यह वास्तविकता के धरातल पर कही नजर ही नहीं आता. चुनाव आयोग अपने स्तर पर प्रेक्षक भेजने से लेकर अ य कार्य भी करती है कि तु या किसी प्रेक्षक ने आज तक किसी बड़ी गड़बड़ी को उजागर किया है. प्रेक्षकों की भूमिका महज एक चौकीदार की तरह है जो हर आने जाने वाले पर केवल नजर रखता है. उसे गड़बड़ी भी दिखाई दे तो वह आंखें मूंद लेता है. ऐसे में व्यवस्था में सुधार की गुंजाईश कहां है. मतदान के एक दिन पूर्व सारे शराब दुकानों को सील कर शुष्क दिवस ाोषित कर दिया जाता है. दूसरी ओर चुनाव लडऩे वाले हर प्र याशी के पास मांग के अनुरुप पेटियां पहुंच चुकी होती है. अवैध शराब रखना भी एक जुर्म है कि तु चुनाव के दौरान यह जुर्म हर चुनाव लडऩे वाला करता हैं कि तु न तो पुलिसिया कार्यवाही होती है और न ही आबकारी दरोगों की नजर इन पर पड़ती है.जिन उद्देश्यों को लेकर पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई है वह अपने उद्देश्यों से भटकता नजर आ रहा है. इसके पीछे सबसे बड़ी वजह भ्रष्टाचार ही है.जिस देश की सर्वो"ा संस्था संसद में आवाज उठाने के लिए पैसे लिए जाते हों वहां के ग्राम सभा में कोई प्रस्ताव पारित करवाने कैसे पैसा नहीं लगता होगा.गांव की स ता में भी भ्रष्टाचार की जो बू आ रही है उसके पीछे भी बड़े भ्रष्ट नेताओं का ही चेहरा दिखाई देता है.पंच से लेकर सरपंच जैसे पदों के लिए पैसा पानी की तरह बहाया जाता है. फिर चुनाव जीतने के बाद खर्च किए रकम की वापसी की चिंता किसे नहीं होगी. छ तीसगढ़ के 17 जिलों में िास्तरीय पंचायत चुनाव तीन चर ाों में संप न हुआ है. गांव-गांव में चुनावी माहौल पूरे शबाब पर रहा.पोस्टर बैनर से पटे गांवों में शराब की नदिया बहती नजर आयी. महिलाओं के लिए साड़ी, लाउज पीस, चांदी की बिछिया तो पुरुषों के लिए मुर्गा, बकरा, दारु की व्यवस्था चुनाव के दौरान हर प्र याशी के लिए मजबूरी के रुप में सामने आया है. लाखों रुपये खर्च कर चुनाव जीतने वाला प्रतिनिधि सबसे पहले अपने खर्च किए पैसे की वापसी चाहता है जिसके लिए गांव के विकास के नारा को तिलांजलि देकर स्वहित में जुट जाता है. ऐसे में गांव के सर्वागी ा विकास की बात बेमानी हो जाती है.जनसेवा और विकास की बातें चुनाव निपटने के साथ ही बिसरा दी जाती है.कमीशन खोरी सहित अ य अवैैध कार्यो में लि त प्रतिनिधि को गांव वासी पांच साल तक कोसते रहते हैं.यदि निर्वाचित प्रतिनिधि स ताधारी दल का समर्थक हुआ तो और मत पूछो. वह प्रतिनिधि से सीधे ठेकेदार बनकर कार्य करने लगता है.लोकसभा विधानसभा चुनाव प्रक्रिया में सुधार की बात तो काफी दूर की कौड़ी है. सबसे नीचे स्तर के इस पंचायत चुनाव में सुधार का प्रयास होना अब जरुरी हो गया है. साधु संत अ सर अपने प्रवचनों में यह सीख देते हैं कि देश को सुधारना है तो पहले समाज को सुधारो, समाज को सुधारना है तो पहले अपने ार को सुधारो और ार को सुधारना है तो पहले अपने आप को सुधारो,कहने का ता पर्य यह है कि सुधार की शुरुआत हर व्य ित को करनी पड़ेगी. गांव का प्रतिनिधि लाखों रुपये खर्च कर जिला, जनपद सरपंच निर्वाचित होता है, वह पहले अपना हित देखता है फिर गांव के बारे में सोचता है.शहरों की अपेक्षा आज गांवों की स्थिति ज्यादा ही चिंताजनक है.गांव-गांव में शराब दुकानें खुल गई है, जहां दुकानें नहीं खुली है वहां अवैध शराब पहुंच रही है.गांव का अधिकांश युवा वर्ग आज पूरी तरह नशे की चपेट में है. गांवों में खेती की जमीन ाटती जा रही है.कल कारखाने और विकास की आड़ में भू-माफिया किसानों की जमीन हथिया रहे है. भारी तादात में ग्रामी ा शहरों की ओर पलायन कर रहे है. पशु की सं या भी गांवों में अब तेजी से कम हो रहा है. आने वाले समय सबसे बड़ा संकट खाद्या न की कमी का होगा योंकि गांवों में खेती करने यो य भूमि ही नहीं बचेगी. शहर से लगे गांवों में यह स्थिति अभी से उ प न हो गई है कि तु इस ओर किसी का यान ही नहीं है. चुनावों में इसी तरह पैसे का खेल चलता रहा तो और मनमानी होती रही तो गांव का गांव बंजर में त दील हो जाएगा. तब न चुनाव होगें और न ही कोई प्रतिनिधि ही निर्वाचित हो पाएगा.ग्रामी ाों को आज से ही अपनी स्थिति पर गंभीरता से विचार करना होगा अ यथा गांवों की दुर्गति बढ़ती ही जाएगी. ा भारत में पंचायती राज व्यवस्था को पूरी तरह से लागू कराने का ोय पूर्व प्रधानमं ाी राजीव गांधी को जाता है.इसके पीछे उनकी मंशा राष्ट्रपिता महा मा गांधी के ग्राम स्वराज्य के सपने को साकार करना रहा है.स्व. राजीव गांधी काफी हद तक अपने उद्देश्यों में कामयाब भी रहे कि तु समय बितने के साथ ही पंचायती राज व्यवस्था का स्वरुप भी बिगडऩे लगा. राजनीति में आने का अर्थ समाजसेवा था कि तु अब राजनीति स्वयं को साधन संप न बनाने का सा य बन चुका है.शायद इसीलिए गांव की राजनीति भी संप नता की ईदगिर्द ही ाूम रही है. भारत विश्व का सबसे बड़ा प्रजातां िाक देश है. इस बात पर हम हमेशा गर्व करते हैं और करते भी रहेंगे कि तु प्रजातं ा आज पूरी तरह लोभ और लालच के मोहजाल में फंसा हुआ है. शायद इसी कार ा सही व्य ितयों का चुनाव नहीं हो पाता और स ता पर अवसरवादी तथा चुनावी र ा में साम दाम दंड भेद की नीति अपनाने वालों की ही जय हो रही है.छ तीसगढ़ में िास्तरीय पंचायत चुनाव हाल ही में संप न हुआ है. अ य चुनावों के मुकाबले गांव की स ता हथियाने इस बार ज्यादा ही जोर और सं ार्ष परिलक्षित हुआ है. पंचायत प्रतिनिधियों का चुनाव पूरी तरह शहरी चुनाव की तर्ज पर लड़ा गया और कहीं-कहीं तो शहर के चुनावी तामझाम को गांव का माहौल पीछे खदेड़ते दिखाई दिया. प्रचार प्रसार सहित अ य चुनावी हथकंडे किसी भी बड़े चुनाव से कम नहीं था. ाोषित तौर पर पंचायतों का चुनाव दलगत आधार पर नहीं होता कि तु अ ाोषित तौर पर राजनैतिक दलों की पूरी दखलंदाजी इस चुनाव में रहती है.स ताधारी दल और विपक्ष जब आमने सामने हो तो वह सारे उपक्रम किए जाते हैं जो लोकसभा विधानसभा और नगरीय निकाय चुनाव में किए जाते हैं.हर चुनाव में मतदाताओं को अपने पक्ष में करने प्रलोभन का सिलसिला शुरु होता है. बड़े चुनाव में यह क्रम रात के अंधेरे में अथवा गुपचुप तरीके से चलता है कि तु पंचायत चुनाव में तो सबकुछ खुलेआम ही चला है. शराब, साड़ी, कपड़ा, टोपी, झोला,कंबल,बिछिया, सहित अ य सामग्री बांटी गई है. चुनाव चाहे उ"ा स्तर की हो या सबसे नीचे स्तर की. मतदाताओं को आकर्षित करने और उ हें प्रलोभन देकर अपने पक्ष में करने की परंपरा पर अंकुश तो हर हाल में लगना ही चाहिए.चुनाव आयोग निष्पक्ष चुनाव कराने का दावा तो करता है कि तु चुनाव के आड़ में पैसे के जोर में आयोग की निष्पक्षता भी दम तोड़ती नजर आती है.कहने को तो नियम और कानून सभी बने है कि तु कौन नियम मान रहा है और कहां नियमों का पालन हो रहा है यह वास्तविकता के धरातल पर कही नजर ही नहीं आता. चुनाव आयोग अपने स्तर पर प्रेक्षक भेजने से लेकर अ य कार्य भी करती है कि तु या किसी प्रेक्षक ने आज तक किसी बड़ी गड़बड़ी को उजागर किया है. प्रेक्षकों की भूमिका महज एक चौकीदार की तरह है जो हर आने जाने वाले पर केवल नजर रखता है. उसे गड़बड़ी भी दिखाई दे तो वह आंखें मूंद लेता है. ऐसे में व्यवस्था में सुधार की गुंजाईश कहां है. मतदान के एक दिन पूर्व सारे शराब दुकानों को सील कर शुष्क दिवस ाोषित कर दिया जाता है. दूसरी ओर चुनाव लडऩे वाले हर प्र याशी के पास मांग के अनुरुप पेटियां पहुंच चुकी होती है. अवैध शराब रखना भी एक जुर्म है कि तु चुनाव के दौरान यह जुर्म हर चुनाव लडऩे वाला करता हैं कि तु न तो पुलिसिया कार्यवाही होती है और न ही आबकारी दरोगों की नजर इन पर पड़ती है.जिन उद्देश्यों को लेकर पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई है वह अपने उद्देश्यों से भटकता नजर आ रहा है. इसके पीछे सबसे बड़ी वजह भ्रष्टाचार ही है.जिस देश की सर्वो"ा संस्था संसद में आवाज उठाने के लिए पैसे लिए जाते हों वहां के ग्राम सभा में कोई प्रस्ताव पारित करवाने कैसे पैसा नहीं लगता होगा.गांव की स ता में भी भ्रष्टाचार की जो बू आ रही है उसके पीछे भी बड़े भ्रष्ट नेताओं का ही चेहरा दिखाई देता है.पंच से लेकर सरपंच जैसे पदों के लिए पैसा पानी की तरह बहाया जाता है. फिर चुनाव जीतने के बाद खर्च किए रकम की वापसी की चिंता किसे नहीं होगी. छ तीसगढ़ के 17 जिलों में िास्तरीय पंचायत चुनाव तीन चर ाों में संप न हुआ है. गांव-गांव में चुनावी माहौल पूरे शबाब पर रहा.पोस्टर बैनर से पटे गांवों में शराब की नदिया बहती नजर आयी. महिलाओं के लिए साड़ी, लाउज पीस, चांदी की बिछिया तो पुरुषों के लिए मुर्गा, बकरा, दारु की व्यवस्था चुनाव के दौरान हर प्र याशी के लिए मजबूरी के रुप में सामने आया है. लाखों रुपये खर्च कर चुनाव जीतने वाला प्रतिनिधि सबसे पहले अपने खर्च किए पैसे की वापसी चाहता है जिसके लिए गांव के विकास के नारा को तिलांजलि देकर स्वहित में जुट जाता है. ऐसे में गांव के सर्वागी ा विकास की बात बेमानी हो जाती है.जनसेवा और विकास की बातें चुनाव निपटने के साथ ही बिसरा दी जाती है.कमीशन खोरी सहित अ य अवैैध कार्यो में लि त प्रतिनिधि को गांव वासी पांच साल तक कोसते रहते हैं.यदि निर्वाचित प्रतिनिधि स ताधारी दल का समर्थक हुआ तो और मत पूछो. वह प्रतिनिधि से सीधे ठेकेदार बनकर कार्य करने लगता है.लोकसभा विधानसभा चुनाव प्रक्रिया में सुधार की बात तो काफी दूर की कौड़ी है. सबसे नीचे स्तर के इस पंचायत चुनाव में सुधार का प्रयास होना अब जरुरी हो गया है. साधु संत अ सर अपने प्रवचनों में यह सीख देते हैं कि देश को सुधारना है तो पहले समाज को सुधारो, समाज को सुधारना है तो पहले अपने ार को सुधारो और ार को सुधारना है तो पहले अपने आप को सुधारो,कहने का ता पर्य यह है कि सुधार की शुरुआत हर व्य ित को करनी पड़ेगी. गांव का प्रतिनिधि लाखों रुपये खर्च कर जिला, जनपद सरपंच निर्वाचित होता है, वह पहले अपना हित देखता है फिर गांव के बारे में सोचता है.शहरों की अपेक्षा आज गांवों की स्थिति ज्यादा ही चिंताजनक है.गांव-गांव में शराब दुकानें खुल गई है, जहां दुकानें नहीं खुली है वहां अवैध शराब पहुंच रही है.गांव का अधिकांश युवा वर्ग आज पूरी तरह नशे की चपेट में है. गांवों में खेती की जमीन ाटती जा रही है.कल कारखाने और विकास की आड़ में भू-माफिया किसानों की जमीन हथिया रहे है. भारी तादात में ग्रामी ा शहरों की ओर पलायन कर रहे है. पशु की सं या भी गांवों में अब तेजी से कम हो रहा है. आने वाले समय सबसे बड़ा संकट खाद्या न की कमी का होगा योंकि गांवों में खेती करने यो य भूमि ही नहीं बचेगी. शहर से लगे गांवों में यह स्थिति अभी से उ प न हो गई है कि तु इस ओर किसी का यान ही नहीं है. चुनावों में इसी तरह पैसे का खेल चलता रहा तो और मनमानी होती रही तो गांव का गांव बंजर में त दील हो जाएगा. तब न चुनाव होगें और न ही कोई प्रतिनिधि ही निर्वाचित हो पाएगा.ग्रामी ाों को आज से ही अपनी स्थिति पर गंभीरता से विचार करना होगा अ यथा गांवों की दुर्गति बढ़ती ही जाएगी.

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