Sunday, July 25, 2010

तस्मै श्री गुरुवे नम

कहते हैं कि दुनिया बदल रही है। भागदौड़ के इस जमाने में परिवार विघटित हो रहें हैं, समाज बट रहा है। संयुक्त परिवार की परंपरा पुराने जमाने की बात हो गई है। यह सब सच भी लगता है किन्तु भारत में आधुनिकता का जितना संचार हुआ है। उसके साथ परंपराएं भी पहले से अधिक मजबूत हुए हैं। भारतीय संस्कृति में गुरु का विशेष महत्व है।बिना गुरु के ज्ञान के जीवन के किसी क्षेत्र के कठिन राहों को लांघ पाना संभव नहीं हैं। लोगों में यह भी चर्चा होती है कि समय बदलने के साथ ही गुरु का महत्व कम हो रहा है किन्तु इस बात में सचाई नहीं दिखती। मेरा मानना है कि पहले की अपेक्षा अब ज्यादा गुरु की पूजा हो रही है। आज के जमाने में आध्य़ाति्मक गुरुओं का बोलबाला है। कोई उसे विश्व गुरु बता रहा है तो कोई जगत गुरु। खैर जो भी हो गुरु तो गुरु है। यह बात अलग है कि कुछ गुरुओं के कुकृत्य से आज गुरु-शिष्य की परंपरा लांछित हो रही है। इस लांछन से गुरु का महत्व निशि्चत रुप से घटा है।
यह बात सच है कि आज गुरु की पूजा का भाव बढ़ा है, गुरुपूर्णिमा का पर्व अब उत्सव के रुप में मनाया जाने लगा है। शैक्षणिक संस्थाओं के अलावा समाजसेवी संगठन और सभा समितियों में भी गुरु की पूजा होने लगी है।यह एक अच्छी शुरुआत है। वैसे देखा जाए तो आज भारत अपनी वैदिक संस्कृति और परंपरा तथा संस्कार के कारण विश्व गुरु माना जाता है। यह परंपरा हम आधुनिकता का कितना बड़ा भी लबादा ओढ़ लें लेकिन कायम तो रहना ही चाहिए। मैं धन्यवाद देना चाहूंगा उन धर्म गुरुओं को जिन्होंने गुरु-शिष्य की एक एसी परंपरा विकसित की है जिसके पीछे लोग दीवाने हो गये हैं। बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर महाराज, सुधांशु महाराज और आशाराम बापू उन आध्यात्म गुरु हैं जिनके पीछे आज लाखों की संख्या में शिष्यों की भीड़ खड़ी हैं। आज ही मथुरा के स्टेशन का एक दृश्य अखबारों में छपा है जिसमें गुरु पर्व मनाने के लिए सैकड़ों लोग जान जोखिम में डालकर ट्रेन के छत पर बैठकर सफर कर रहे हैं। इससे साबित होता है कि गुरु के इस पर्व को लेकर लोगों में कितना उत्साह है। शिष्या की निष्ठा आज भी पराकाष्ठा की हदें पार कर रही है किन्तु क्या गुरु अपने शिष्यों के साथ सही व्यवहार कर रहा है। महिला हाकी टीम के सदस्यों के साथ यौन शोषण का मामला, कर्णम मलेष्वरी का आरोप गुरु-शिष्य के संबंधों में कड़वाहट घोलने के लिए काफी है।
छत्तीसगढ़ी नाटक चरणदास चोर में भी गुरु-शिष्य पर एक रोचक तथ्य दिखाया गया है। चरणदास चोर को जब यह पता चलता है कि बिना गुरु के इस जीवन का कल्याण नहीं हो सकता तब वे गुरु की खोज में निकल पड़ते हैं। एक जगह उन्हें एक साधू दिखाई पड़ता है जिसे वे गुरु बनाने की इच्छा व्यक्त करता है लेकिन गुरु बनने के पहले वह गुरु और शिष्य के कार्यों की जानकारी चाहता है। साधू बताते हैं कि शिष्य को सदैव अपने गुरु की सेवा ही करनी पड़ती है, यह सुनने के बाद चरणदास शिष्य बनने का विचार त्याग कर सीधे गुरु बनने की इच्छा व्यक्त करता हैं। कहने का मतलब यह है कि आज भी कई क्षेत्रों में यही हो रहा है। गुरु गुड़ बन गया और चेला शक्कर बन गया। खैर जो भी हो भले ही हम एक दिन गुरु पर्व मना कर अपने गुरु को याद कर अपनी परंपरा को जीवित रखने में भूमिका तो निभा रहे हैं। मैं अपने उन गुरुओं का चरण वंदन करता हूं जिनके सानिध्य से मैं आज कुछ करने के लायक बन पाया हूं।

2 comments:

  1. गुरुपर्व के बहाने चरणदास चोर की कहानी का यह पुनर्पाठ अच्छा लगा ।

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  2. सुन्‍दर विचार. धन्‍यवाद भईया.

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