छ तीसगढ़ में नक्सली हिंसा का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। कल तक सिर्फ पुलिस के जवानों को निशाना बनाने वाले नक्सली अब नागरिकों को भी मौत की नींद सुलाने में परहेज नहीं कर रहे हैं। सुकमा-दंतेवाड़ा मार्ग परयात्री बस को उड़ाकर पुलिस जवान, एसपीओ सहित गांववालों कीहत्या कर नक्सलियोंने जता दिया है कि उनका कोई सिध्दांत नहीं है और वे केवल आंतक फैलाकर वनांचलों में अपना राज चलाना चाह रहे हैं। दरअसल 6 अप्रैल को चि तलनार के जंगल में 76 जवानों की हत्या के बाद सरकार की सुस्त नीति और योजना तथा कार्यवाही में विलंब का ही फायदा उठाकरनक्सली लगातार वारदातों को अंजाम दे रहे हैं। चि तलनार की घटना के बाद बीजापुर मार्ग पर पुलिस वाहन उड़ाकर 8 जवानों को मारने के बाद अब या यात्री बस पर निशाना साधा है और बड़ी वारदात को अंजाम देकर एक बार फिर पुलिस और सरकार को पीछे खदेडऩे में कामयाबी का झंडा गाड़ दिया है। 76 जवानों की हत्या के बाद तो ऐसा कोहराम मचा था मानों सरकार अब नक्सली समस्या का खात्मा कर ही दम लेगी किन्तु समय बितने के साथ ही मामला ठंडे बस्ते में चला गया। इतनी बड़ी घटना के बाद न तो पुलिस का रवैया बदला और न ही शासन प्रशासन की तंद्रा ही टूटी। घटना के बाद केवल निंदा और नक्सलियों को कोसने के अलावा कुछ भी नहीं बचा. ज्यादा हल्ला होने पर केन्दीय गृह मंत्री का वक्तव्य और कार्यवाही तेज करने संबंधी बयान ही आता है. कार्यवाही कहां होती है इसका कुछ पता नहीं चलता. दूसरी ओर नक्सली एक वारदात की सफलता के बाद दूसरी वारदात को अंजाम देने की रणनीति बनाने में जुट जाते हैं.नक्सली हिंसा के कारण छ तीसगढ़ आज देश के सबसे ज्यादा अशांत क्षेत्र की श्रेणी मेंआ गया है. पिछले तीन माह के दौरान यहां नक्सलियों ने दो सौ से अधिक सिविलियन और जवानों को निशाना बनाया है. आतंकवाद और अलगाववाद केयुध्द से जूझ रहे जम्मू-कश्मीर में भी इतनी हत्याएं नहीं हुई है. आज देश का पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार, उडि़सा, म यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, छ तीसगढ़ और महाराष्टृ नक्सलवादकी चपेट में है किन्तु सर्वाधिक वारदातें छ तीसगढ़ में होना गंभीर चिंता का विषय है. छ तीसगढ़ सरकार और सुरक्षा ऐजेसियां लगातार चूक रही है जिसका फायदा नक्सली उठा रहे हैं. यह सरकार और प्रदेश के लिए काफी कठिन दौर है. इसे आज भी हल्के से नहीं लिया जाना चाहिए. लगातार वारदातों ने पुलिस के खुफिया तंत्र पर भी प्रश्न चिन्ह लगा दिया है. जब भी कोई बड़ी वारदातें होती है, उसके दूसरे दिन आईबी की रिपोर्ट आती है कि बस्तर केनक्सलियों का लश्कर से संबंध है और उन्हेंप्रशिक्षणऔर पैसा लश्कर से मिल रहा है. इसके पहलेनक्सलियों का नेपाल के माओवादियो, लिट्टे से भी संबंध की चर्चा चली थी.संबंध किससे है यह मायने नहीं रखता क्योंकि नक्सलियों को छ तीसगढ़ और खासकर वनांचलों से ही इतनी आय हो रही है किउन्हेंकहीं झांकने की जरुरत नहीं है और न ही किसी से रिश्तेदारी निभाने की आवश्यकता है. सरकार जब तक आर्थिक नाकेबंदी नहीं करेगी तब तकनक्सलियोंकी जड़ें कमजोर होना मुश्किल हैघने जंगल और चप्पे-चप्पेपर पुलिस की मौजूदगी के बाद भी नक्सलियों को खाने -पीने का सामान, गोला बारुद और हथियार कहां से मिल रहा है .इसका भंडाफोड़ करना जरुरी है. निश्चित रुप से बड़े शहरों से नक्सलीतार जुड़े हुए हैं और रसद सप्लाई भी इन्ही शहरों से हो रही है. जब तक नक्सलप्रभावित इलाके को सील नहीं किया जाएगा और इस क्षे त्र के आमद-रफ्तपर पैनी नजर नहीं रखी जाएगी तब तक नक्सलियों को मदद मिलते रहेगा. यह कितने दुर्भाग्यकी बात है कि हम नक्सलियोंसे निपटने के लिए सैकड़ों जवान वन क्षेत्रं में तैनात करते हैं किन्तु उनके राशन पानी की समुचित व्यवस्था भी नहीं कर सकते. जिस जवान को मोर्चे पर दुश्मन से लोहा लेने मानसिक और शारीरिक दृष्टि से पुष्ट बनाने की जरुरत हैउन्हीं जवानों को यदि खाने के लाले पड़ जाए तो वह कैसे नक्सलियों का मुकाबला कर पाएगी. चि तलनारघटना के बाद घायल जवानों ने राशन की कमी का मामला उठाया था. उसके दो दिन बाद भेजे जा रहे राशन को भी नक्सलियों ने लूट लिया .कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि नक्सलियों से मोर्चा ले रहे जवानों के समक्ष विकट स्थिति है. घटनाएं होने के बाद कांग्रेस जहां सरकार की नाकामी का राग अलापती है तो राज्य सरकार कें द्र के सिर पर सवार हो जाती है. पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने तो राज्य सरकार को बर्खास्त कर राष्टृपति शासन लगाए जाने की वकालत की है. इस बात की क्या गारंटी है कि राष्टृपति शासन लगने के बाद नक्सली चुप बैठ जाएंगे. चूंकि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार नहीं है इसलिए उसे बर्खास्त कर दिया जाए. पूर्वमुख्यमंत्रीदिग्वीजय सिंह भी नक्सली मुद्दे पर अपने विवादास्पद बयान के कार ण सुर्खियों पर है. पहले उन्होंने अपने ही गृहमं त्री की आलोचना कर दी फिर माफी मांगकर मामला शांत कर लिया. अब दिग्गीराजा नक्सलियों को आतंकवादी मानने से इंकार कर रहे हैं. जिननक्सिलयों का कोई धर्म नहीं है और केवल बंदूक की भाषा बोल रहे हैं, और जो असहाय, गरीब आदिवासियों के साथ कर्तव्य के बोझ तले दबे जवानों की नृशंस हत्याकर रहे हैं. ऐसे सिरफिरों को आतंकवादी से भी खराब यदि कोई शब्दहो तो उससे संबोधित किया जाना चाहिए. बेहतर हो राजनीतिज्ञ नक्सलीमुद्दे पर राजनीति न करे क्योंकि चाहे दि िवजय सिंह का कार्यकाल हो चाहे अजीत जोगी या रमन सिंह का यह समस्या विरासत में मिली है. यह जरुर सच है कि प्रदेश में भाजपा की सरकार आने के बाद नक्सली गतिविधियां तेजी से बढ़ी है. अब नक्सली बंद का खौफ वनांचलों में देखा जा सकता है.प्रमुख मार्गों को छोड़कर बस्तर के अंदरुनी सड़कों पर वाहनों के पहिए थम गये हैं. लोगों के आने जाने पर पाबंदी लग चुका है. इन क्षेत्रों में निवास करने वाले वनवासी किन परिस्थितियों में जीवनयापन कर रहे हैं, इस बात का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. प्रभावित क्षेत्रों में बड़ी वारदात के बाद दिल्ली में गृहमंत्री और बाद में प्रधानमंत्रीके साथ मुख्यमंत्रीकी दो बड़ी बैठकें हो चुकी हैकिन्तुसरकार का कड़ा रुख अभी तक उभर कर सामने नहीं आया है. बड़ी कार्यवाही अथवानक्सलियोंके खिलाफ बनी योजना का सरकार और उनके नुमाइंदें ढिढोरा पीट देते हैं जिससे नक्सलियों को अपनी र णनीति बदलने का मौका मिल जाता है. न क्सलियों की खबर सरकार या पुलिस तक पहुंचाने वाले चुनिंदें लोग ही होंगे किन्तु सरकार या पुलिस की र णनीति नक्सलियों तक पहुंचाने वाले सैकड़ों होंगे. सरकार पूरे मामले में गोपनीयता बरते तो शायद बड़ी कार्यवाही को अंजाम तक पहुंचा सकते हैं.यह बात सच है कि नक्सलियोके खिलाफ सरकार को लंबी लड़ाई लडऩी पडेगीकिन्तु लंबी लड़ाई की तैयारी में हमारा वर्तमान ही तहस-नहस न हो जाए इस बात को भी ध्यान रखने की जरुरत है.
Thursday, July 29, 2010
छ तीसगढ़ की शांति पर लगा न सली हिंसा का ग्रह ा छ तीसगढ़ में न सली हिंसा का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है. कल तक सिर्फ पुलिस के जवानों को निशाना बनाने वाले न सली अब नागरिकों को भी मौत की नींद सुलाने में परहेज नहीं कर रहे हैंै. सुकमा-दंतेवाड़ा मार्ग पर या ाी बस को उड़ाकर पुलिस जवान, एसपीओ सहित ग्रामी ाों की ह या कर न सलियों ने जता दिया है कि उनका कोई सि दांत नहीं है और वे केवल आंतक फैलाकर वनांचलों में अपना राज चलाना चाह रहे हैं. दरअसल 6 अप्रैल को चि तलनार के जंगल में 76 जवानों की ह या के बाद सरकार की सुस्त नीति और योजना तथा कार्यवाही में विलंब का ही फायदा उठाकर न सली लगातार वारदातों को अंजाम दे रहे हैं. चि तलनार की ाटना के बाद बीजापुर मार्ग पर पुलिस वाहन उड़ाकर 8 जवानों को मारने के बाद अब या ाी बस पर निशाना साधा है और बड़ी वारदात को अंजाम देकर एक बार फिर पुलिस और सरकार को पीछे खदेडऩे में कामयाबी का झंडा गाड़ दिया है. 76 जवानों की ह या के बाद तो ऐसा कोहराम मचा था मानों सरकार अब न सली समस्या का खा मा कर ही दम लेगी कि तु समय बितने के साथ ही मामला ठंडे बस्ते में चला गया. इतनी बड़ी ाटना के बाद न तो पुलिस का रवैया बदला और न ही शासन प्रशासन की तंद्रा ही टूटी. ाटना के बाद केवल निंदा और न सलियों के कोसने के अलावा कुछ भी नहीं बचा. ज्यादा हल्ला होने पर के द्रीय गृह मं ाी का व तव्य और कार्यवाही तेज करने संबंधी बयान ही आता है. कार्यवाही कहां होती है इसका कुछ पता नहीं चलता. दूसरी ओर न सली एक वारदात की सफलता के बाद दूसरी वारदात को अंजाम देने की र ानीति बनाने में जुट जाते हैं. न सली हिंसा के कार ा छ तीसगढ़ आज देश के सबसे ज्यादा अशांत क्षे ा की ो ाी मेें आ गया है. पिछले तीन माह के दौरान यहां न सलियों ने दो सौ से अधिक सिविलियन और जवानों को निशाना बनाया है. आतंकवाद और अलगाववाद के यु द से जूझ रहे ज मू-कश्मीर में भी इतनी ह याएं नहीं हुई है. आज देश का पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार, उडि़सा, म यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, छ तीसगढ़ और महाराष्टृ न सलवाद की चपेट में है कि तु सर्वाधिक वारदातें छ तीसगढ़ में होना गंभीर चिंता का विषय है. छ तीसगढ़ सरकार और सुरक्षा ऐजेसियां लगातार चूक रही है जिसका फायदा न सली उठा रहे हैं. यह सरकार और प्रदेश के लिए काफी कठिन दौर है. इसे आज भी हल्के से नहीं लिया जाना चाहिए. लगातार वारदातों ने पुलिस के खुफिया तं ा पर भी प्रश्न चि ह लगा दिया है. जब भी कोई बड़ी वारदातें होती है, उसके दूसरे दिन आईबी की रिपोर्ट आती है कि बस्तर के न सलियों का लश्कर से संबंध है और उ हें प्रशिक्ष ा और पैसा लश्कर से मिल रहा है. इसके पहले न सलियों का नेपाल के माओवादियो, लिट्टे से भी संबंध की चर्चा चली थी.संबंध किससे है यह मायने नहीं रखता योंकि न सलियों को छ तीसगढ़ और खासकर वनांचलों से ही इतनी आय हो रही है कि उ हें कहीं झांकने की जरुरत नहीं है और न ही किसी से रिश्तेदारी निभाने की आवश्यकता है. सरकार जब तक आर्थिक नाकेबंदी नहीं करेगी तब तक न सलियों की जड़ें कमजोर होना मुश्किल है. ाने जंगल और च पे -च पे पर पुलिस की मौजूदगी के बाद भी न सलियों को खाने -पीने का सामान, गोला बारुद और हथियार कहां से मिल रहा है .इसका भंडाफोड़ करना जरुरी है. निश्चित रुप से बड़े शहरों से न सली तार जुड़े हुए हैं और रसद स लाई भी इ ही शहरों से हो रही है. जब तक न सल प्रभावित इलाके को सील नहीं किया जाएगा और इस क्षे ा के आमद-र त पर पैनी नजर नहीं रखी जाएगी तब तक न सलियों को मदद मिलते रहेगा. यह कितने दुर्भा य की बात है कि हम न सलियों से निपटने के लिए सैकड़ों जवान वन क्षे ाों में तैनात करते हैं कि तु उनके राशन पानी की समुचित व्यवस्था भी नहीं कर सकते. जिस जवान को मोर्चे पर दुश्मन से लोहा लेने मानसिक और शारीरिक दृष्टि से पुष्ट बनाने की जरुरत है उ हीं जवानों को यदि खाने के लाले पड़ जाए तो वह कैसे न सलियों का मुकाबला कर पाएगी. चि तलनार ाटना के बाद ाायल जवानों ने राशन की कमी का मामला उठाया था. उसके दो दिन बाद भेजे जा रहे राशन को भी न सलियों ने लूट लिया .कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि न सलियों से मोर्चा ले रहे जवानों के समक्ष विकट स्थिति है. ाटनाएं होने के बाद कांग्रेस जहां सरकार की नाकामी का राग अलापती है तो राज्य सरकार के द्र के सिर पर सवार हो जाती है. पूर्व मु यमं ाी अजीत जोगी ने तो राज्य सरकार को बर्खास्त कर राष्टृपति शासन लगाए जाने की वकालत की है. इस बात की या गारंटी है कि राष्टृपति शासन लगने के बाद न सली चुप बैठ जाएंगे. चूंकि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार नहीं है इसलिए उसे बर्खास्त कर दिया जाए. पूर्व मु यमं ाी दि िवजय सिंह भी न सली मुद्दे पर अपने विवादास्पद बयान के कार ा सुर्खियों पर है. पहले उ होने अपने ही गृहमं ाी की आलोचना कर दी फिर माफी मांगकर मामला शांत कर लिया. अब दि गी राजा न सलियों को आतंकवादी मानने से इंकार कर रहे हैं. जिन न सलियों का कोई धर्म नहीं है और केवल बंदूक की भाषा बोल रहे हैं, और जो असहाय, गरीब आदिवासियों के साथ कर्तव्य के बोझ तले दबे जवानों की नृशंस ह या कर रहे हैं. ऐसे सिरफिरों को आतंकवादी से भी खराब यदि कोई श द हो तो उससे संबोधित किया जाना चाहिए. बेहतर हो राजनीति ा न सली मुद्दे पर राजनीति न करे योंकि चाहे दि िवजय सिंह का कार्यकाल हो चाहे अजीत जोगी या रमन सिंह का यह समस्या विरासत में मिली है. यह जरुर सच है कि प्रदेश में भाजपा की सरकार आने के बाद न सली गतिविधियां तेजी से बढ़ी है. अब न सली बंद का खौफ वनांचलों में देखा जा सकता है.प्रमुख मार्गों को छोड़कर बस्तर के अंदरुनी सड़कों पर वाहनों के पहिए थम गये हैं. लोगों के आने जाने पर पाबंदी लग चुका है. इन क्षे ाों में निवास करने वाले वनवासी किन परिस्थितियों में जीवनयापन कर रहे हैं, इस बात का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. प्रभावित क्षे ाों में बड़ी वारदात के बाद दिल्ली में गृहमं ाी और बाद में प्रधानमं ाी के साथ मु यमं ाी की दो बड़ी बैठकें हो चुकी है कि तु सरकार का कड़ा रुख अभी तक उभर कर सामने नहीं आया है. बड़ी कार्यवाही अथवा न सलियों के खिलाफ बनी योजना का सरकार और उनके नुमाइंदें ढिढोरा पीट देते हैं जिससे न सलियों को अपनी र ानीति बदलने का मौका मिल जाता है. न सलियों की खबर सरकार या पुलिस तक पहुंचाने वाले चुनिंदें लोग ही होंगे कि तु सरकार या पुलिस की र ानीति न सलियों तक पहुंचाने वाले सैकड़ों होंगे. सरकार पूरे मामले में गोपनीयता बरते तो शायद बड़ी कार्यवाही को अंजाम तक पहुंचा सकते हैं.यह बात सच है कि न सलियों के खिलाफ सरकार को लंबी लड़ाई लडऩी पडेगी कि तु लंबी लड़ाई की तैयारी में हमारा वर्तमान ही तहस-नहस न हो जाए इस बात को भी यान रखने की जरुरत है.
Sunday, July 25, 2010
तस्मै श्री गुरुवे नम
कहते हैं कि दुनिया बदल रही है। भागदौड़ के इस जमाने में परिवार विघटित हो रहें हैं, समाज बट रहा है। संयुक्त परिवार की परंपरा पुराने जमाने की बात हो गई है। यह सब सच भी लगता है किन्तु भारत में आधुनिकता का जितना संचार हुआ है। उसके साथ परंपराएं भी पहले से अधिक मजबूत हुए हैं। भारतीय संस्कृति में गुरु का विशेष महत्व है।बिना गुरु के ज्ञान के जीवन के किसी क्षेत्र के कठिन राहों को लांघ पाना संभव नहीं हैं। लोगों में यह भी चर्चा होती है कि समय बदलने के साथ ही गुरु का महत्व कम हो रहा है किन्तु इस बात में सचाई नहीं दिखती। मेरा मानना है कि पहले की अपेक्षा अब ज्यादा गुरु की पूजा हो रही है। आज के जमाने में आध्य़ाति्मक गुरुओं का बोलबाला है। कोई उसे विश्व गुरु बता रहा है तो कोई जगत गुरु। खैर जो भी हो गुरु तो गुरु है। यह बात अलग है कि कुछ गुरुओं के कुकृत्य से आज गुरु-शिष्य की परंपरा लांछित हो रही है। इस लांछन से गुरु का महत्व निशि्चत रुप से घटा है।
यह बात सच है कि आज गुरु की पूजा का भाव बढ़ा है, गुरुपूर्णिमा का पर्व अब उत्सव के रुप में मनाया जाने लगा है। शैक्षणिक संस्थाओं के अलावा समाजसेवी संगठन और सभा समितियों में भी गुरु की पूजा होने लगी है।यह एक अच्छी शुरुआत है। वैसे देखा जाए तो आज भारत अपनी वैदिक संस्कृति और परंपरा तथा संस्कार के कारण विश्व गुरु माना जाता है। यह परंपरा हम आधुनिकता का कितना बड़ा भी लबादा ओढ़ लें लेकिन कायम तो रहना ही चाहिए। मैं धन्यवाद देना चाहूंगा उन धर्म गुरुओं को जिन्होंने गुरु-शिष्य की एक एसी परंपरा विकसित की है जिसके पीछे लोग दीवाने हो गये हैं। बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर महाराज, सुधांशु महाराज और आशाराम बापू उन आध्यात्म गुरु हैं जिनके पीछे आज लाखों की संख्या में शिष्यों की भीड़ खड़ी हैं। आज ही मथुरा के स्टेशन का एक दृश्य अखबारों में छपा है जिसमें गुरु पर्व मनाने के लिए सैकड़ों लोग जान जोखिम में डालकर ट्रेन के छत पर बैठकर सफर कर रहे हैं। इससे साबित होता है कि गुरु के इस पर्व को लेकर लोगों में कितना उत्साह है। शिष्या की निष्ठा आज भी पराकाष्ठा की हदें पार कर रही है किन्तु क्या गुरु अपने शिष्यों के साथ सही व्यवहार कर रहा है। महिला हाकी टीम के सदस्यों के साथ यौन शोषण का मामला, कर्णम मलेष्वरी का आरोप गुरु-शिष्य के संबंधों में कड़वाहट घोलने के लिए काफी है।
छत्तीसगढ़ी नाटक चरणदास चोर में भी गुरु-शिष्य पर एक रोचक तथ्य दिखाया गया है। चरणदास चोर को जब यह पता चलता है कि बिना गुरु के इस जीवन का कल्याण नहीं हो सकता तब वे गुरु की खोज में निकल पड़ते हैं। एक जगह उन्हें एक साधू दिखाई पड़ता है जिसे वे गुरु बनाने की इच्छा व्यक्त करता है लेकिन गुरु बनने के पहले वह गुरु और शिष्य के कार्यों की जानकारी चाहता है। साधू बताते हैं कि शिष्य को सदैव अपने गुरु की सेवा ही करनी पड़ती है, यह सुनने के बाद चरणदास शिष्य बनने का विचार त्याग कर सीधे गुरु बनने की इच्छा व्यक्त करता हैं। कहने का मतलब यह है कि आज भी कई क्षेत्रों में यही हो रहा है। गुरु गुड़ बन गया और चेला शक्कर बन गया। खैर जो भी हो भले ही हम एक दिन गुरु पर्व मना कर अपने गुरु को याद कर अपनी परंपरा को जीवित रखने में भूमिका तो निभा रहे हैं। मैं अपने उन गुरुओं का चरण वंदन करता हूं जिनके सानिध्य से मैं आज कुछ करने के लायक बन पाया हूं।
यह बात सच है कि आज गुरु की पूजा का भाव बढ़ा है, गुरुपूर्णिमा का पर्व अब उत्सव के रुप में मनाया जाने लगा है। शैक्षणिक संस्थाओं के अलावा समाजसेवी संगठन और सभा समितियों में भी गुरु की पूजा होने लगी है।यह एक अच्छी शुरुआत है। वैसे देखा जाए तो आज भारत अपनी वैदिक संस्कृति और परंपरा तथा संस्कार के कारण विश्व गुरु माना जाता है। यह परंपरा हम आधुनिकता का कितना बड़ा भी लबादा ओढ़ लें लेकिन कायम तो रहना ही चाहिए। मैं धन्यवाद देना चाहूंगा उन धर्म गुरुओं को जिन्होंने गुरु-शिष्य की एक एसी परंपरा विकसित की है जिसके पीछे लोग दीवाने हो गये हैं। बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर महाराज, सुधांशु महाराज और आशाराम बापू उन आध्यात्म गुरु हैं जिनके पीछे आज लाखों की संख्या में शिष्यों की भीड़ खड़ी हैं। आज ही मथुरा के स्टेशन का एक दृश्य अखबारों में छपा है जिसमें गुरु पर्व मनाने के लिए सैकड़ों लोग जान जोखिम में डालकर ट्रेन के छत पर बैठकर सफर कर रहे हैं। इससे साबित होता है कि गुरु के इस पर्व को लेकर लोगों में कितना उत्साह है। शिष्या की निष्ठा आज भी पराकाष्ठा की हदें पार कर रही है किन्तु क्या गुरु अपने शिष्यों के साथ सही व्यवहार कर रहा है। महिला हाकी टीम के सदस्यों के साथ यौन शोषण का मामला, कर्णम मलेष्वरी का आरोप गुरु-शिष्य के संबंधों में कड़वाहट घोलने के लिए काफी है।
छत्तीसगढ़ी नाटक चरणदास चोर में भी गुरु-शिष्य पर एक रोचक तथ्य दिखाया गया है। चरणदास चोर को जब यह पता चलता है कि बिना गुरु के इस जीवन का कल्याण नहीं हो सकता तब वे गुरु की खोज में निकल पड़ते हैं। एक जगह उन्हें एक साधू दिखाई पड़ता है जिसे वे गुरु बनाने की इच्छा व्यक्त करता है लेकिन गुरु बनने के पहले वह गुरु और शिष्य के कार्यों की जानकारी चाहता है। साधू बताते हैं कि शिष्य को सदैव अपने गुरु की सेवा ही करनी पड़ती है, यह सुनने के बाद चरणदास शिष्य बनने का विचार त्याग कर सीधे गुरु बनने की इच्छा व्यक्त करता हैं। कहने का मतलब यह है कि आज भी कई क्षेत्रों में यही हो रहा है। गुरु गुड़ बन गया और चेला शक्कर बन गया। खैर जो भी हो भले ही हम एक दिन गुरु पर्व मना कर अपने गुरु को याद कर अपनी परंपरा को जीवित रखने में भूमिका तो निभा रहे हैं। मैं अपने उन गुरुओं का चरण वंदन करता हूं जिनके सानिध्य से मैं आज कुछ करने के लायक बन पाया हूं।
Sunday, July 18, 2010
कैसे गढ़े जिंदगी
राज्य और केन्द सरकार शिक्षा व्यवस्था के लेकर काफी गंभीर नजर आ रही है इसीलिए शिक्षा अधिकार अधिनियंम सहित अन्य शिकंजा कसने की कवायद कर रही है। कोई बच्चा स्कूल जाने से न चूके राज्य सरकार उत्सव मना रही है और स्कूल जाबो पढ़े बर जिनगी ला गढे बर जैसे नारे दे रही है किन्तु आज क्या सचमुच सरकारी स्कूलों में बच्चों को जिंदगी संवर रही है। सरकारी स्कूल में वही लोग पहुंच रहे हैं जो सबसे गरीब हैं। जिनके पास दो जून की रोटी की जुगत है और थोड़ा बहुत भी पैसा है तो उसके बच्चे भी ठीकठाक स्कूल में पढ़ रहे हैं। सरकारी स्कूल केवल और केवल गरीबों के लिए है। कहते हैं कि गरीबों का कोई नहीं होता। उसी तरह इन सरकारी स्कूलों का कोई माईबाप नहीं है। हजारों लाखों की जीविका इन स्कूलों से चल रही है किन्तु क्या हर शख्स अपना फर्ज पूरी इमानदारी से निभा रहा है, बिल्कुल ही नहीं। आज सरकारी स्कूली के हालात देखने से ही अंदाजा हो जाएगा कि गरीबों के इस ज्ञानमंदिर में न तो भगवान है और न ही पुजारी। सरकारी स्कूलों की हालत उस मंदिर की तरह है जो बनकर तैयार तो हो गया है किन्तु न भगवान विराजमान है और न ही पूजा हो रही है। शिक्षाधिकारी, कलेक्टर, मंत्री, जनभागीदारी समिति सहित न जाने कितने नियंत्रण इन स्कूलों पर है किन्तु बरसों से इसकी व्यवस्था नहीं सुधर पायी है।
बच्चों को स्वस्थ रखने और पढ़ाई के लिए उत्साहित करने के लिए मध्यान्ह भोजन व्यवस्था लागू की गई। पहले भोजन बनाने का कार्य स्कूलों में ही होता था किन्तु बाद में सारी व्यवस्था ठेकेदारों को सौंप दिया गया, अब जिस कार्य की जिम्मेदारी ठेकेदारों के हाथ में हो वहां कमीशनखोरी का खेल तो खेला जाना स्वाभाविक ही है। पूरे शहर का खाना एक जगह ही बनता है और जेल के कैदियों को परोसे जाने वाले खाने से भी बदतर खाना बच्चों को परोसा जाता है। मीनू का पालन होना तो सपना है। शहर के स्कूलों में चांवल, दाल और सब्जी ही दिखता है। इस खाना को खाकर बच्चें अपना कितना मानसिक और शारीरिक विकास कर पाएंगे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। बरसात का मौसम स्कूल का मैदान, भिनभिनाती मक्खियों के बीच धूल और किचड़ में बच्चे मधायन्ह भोजन करते हैं। किसी शिक्षक को इतनी फुरसत नहीं है कि बच्चों के भोजन करने की व्यवस्था ठीक कर सके। पूरी व्यवस्था को सत्तारुढ़ भाजपा के नेताओं ने हाई जैक कर लिया है। दुर्ग छग के मध्यान्ह भोजन सप्लाई की जिम्मेदारी भाजपा नेत्रियों की गठित समिति की है जो बच्चों का निवाला छिनने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं।
जहां तक स्कूलों की स्थिति और हालत की बात है तो अधिकांश स्कूल भवन जर्जर हालत में है। कमरों की कमी है। एक-एक कमरे में ६०-७० बच्चों को बैठना पड़ता है। स्कूलों में पर्याप्त स्टाफ की व्यवस्था भी नहीं। शिक्षकों की ड्यूटी पढाने के अलावा अन्य कार्य में लगा दिया जाता है जिससे बच्चों की पढ़ाई ठप पड़ जाती है। कई स्कूलों में तो शिक्षक ही पढ़ाई में रुचि नहीं दिखाते। उनकी ऱुचि केवल नौकरी पकाने और तनख्वाह पाने तक सीमित होकर रह गया है। मैं एक स्कूल की एक एेसी शिक्षिका को जानता हू जो एक स्थानीय नेता की पत्नी है। सुबह के स्कूल में उसे ८ बजे उपसिथति देने और १०.३० बजे छुट्टी देने के स्पष्ट आदेश मंत्री का लिखित में स्कूल में है। अब इस व्यवस्था से क्या गरीबों के बच्चे होनहार बनकर अपना नाम रौशन कर पाएंगे।
हर शहर की आधी से अधिक आबादी गरीबों की है, सरकारी स्कूलों की संख्या भी काफी है किन्तु व्यवस्था पूरी तरह से चौपट है। न बच्चे ठीक से पढ़ रहे हैं और न ही उन्हें सही भोजन ही दिया जा रहा है। सरकार लुभावने नारे देकर बच्चों का आदर सत्कार तो कर सकती हैं किन्तु जब तक व्यवस्था पर कड़ाई का शिकंजा नहीं कसा जाएगा तब तक गरीबों को शिक्षा के अधिकार अधिनियम का सही लाभ नहीं मिल पाएगा। शिक्षकों की रुचि भी पढ़ाने में कम नेतागिरी में ज्यादा है। उन्हें केवल यही चिंता सताती है कि वेतन समय पर मिले, वेतनमान भी लगातार बढता ही रहे। बदले में वे क्या कर रहे हैं, यह न वह स्वयं सोच रहा है और न ही कोई देखने वाला है.
बच्चों को स्वस्थ रखने और पढ़ाई के लिए उत्साहित करने के लिए मध्यान्ह भोजन व्यवस्था लागू की गई। पहले भोजन बनाने का कार्य स्कूलों में ही होता था किन्तु बाद में सारी व्यवस्था ठेकेदारों को सौंप दिया गया, अब जिस कार्य की जिम्मेदारी ठेकेदारों के हाथ में हो वहां कमीशनखोरी का खेल तो खेला जाना स्वाभाविक ही है। पूरे शहर का खाना एक जगह ही बनता है और जेल के कैदियों को परोसे जाने वाले खाने से भी बदतर खाना बच्चों को परोसा जाता है। मीनू का पालन होना तो सपना है। शहर के स्कूलों में चांवल, दाल और सब्जी ही दिखता है। इस खाना को खाकर बच्चें अपना कितना मानसिक और शारीरिक विकास कर पाएंगे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। बरसात का मौसम स्कूल का मैदान, भिनभिनाती मक्खियों के बीच धूल और किचड़ में बच्चे मधायन्ह भोजन करते हैं। किसी शिक्षक को इतनी फुरसत नहीं है कि बच्चों के भोजन करने की व्यवस्था ठीक कर सके। पूरी व्यवस्था को सत्तारुढ़ भाजपा के नेताओं ने हाई जैक कर लिया है। दुर्ग छग के मध्यान्ह भोजन सप्लाई की जिम्मेदारी भाजपा नेत्रियों की गठित समिति की है जो बच्चों का निवाला छिनने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं।
जहां तक स्कूलों की स्थिति और हालत की बात है तो अधिकांश स्कूल भवन जर्जर हालत में है। कमरों की कमी है। एक-एक कमरे में ६०-७० बच्चों को बैठना पड़ता है। स्कूलों में पर्याप्त स्टाफ की व्यवस्था भी नहीं। शिक्षकों की ड्यूटी पढाने के अलावा अन्य कार्य में लगा दिया जाता है जिससे बच्चों की पढ़ाई ठप पड़ जाती है। कई स्कूलों में तो शिक्षक ही पढ़ाई में रुचि नहीं दिखाते। उनकी ऱुचि केवल नौकरी पकाने और तनख्वाह पाने तक सीमित होकर रह गया है। मैं एक स्कूल की एक एेसी शिक्षिका को जानता हू जो एक स्थानीय नेता की पत्नी है। सुबह के स्कूल में उसे ८ बजे उपसिथति देने और १०.३० बजे छुट्टी देने के स्पष्ट आदेश मंत्री का लिखित में स्कूल में है। अब इस व्यवस्था से क्या गरीबों के बच्चे होनहार बनकर अपना नाम रौशन कर पाएंगे।
हर शहर की आधी से अधिक आबादी गरीबों की है, सरकारी स्कूलों की संख्या भी काफी है किन्तु व्यवस्था पूरी तरह से चौपट है। न बच्चे ठीक से पढ़ रहे हैं और न ही उन्हें सही भोजन ही दिया जा रहा है। सरकार लुभावने नारे देकर बच्चों का आदर सत्कार तो कर सकती हैं किन्तु जब तक व्यवस्था पर कड़ाई का शिकंजा नहीं कसा जाएगा तब तक गरीबों को शिक्षा के अधिकार अधिनियम का सही लाभ नहीं मिल पाएगा। शिक्षकों की रुचि भी पढ़ाने में कम नेतागिरी में ज्यादा है। उन्हें केवल यही चिंता सताती है कि वेतन समय पर मिले, वेतनमान भी लगातार बढता ही रहे। बदले में वे क्या कर रहे हैं, यह न वह स्वयं सोच रहा है और न ही कोई देखने वाला है.
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