अन्ना हजारे के सत्याग्रह ने जो अभूतपूर्व सफलता पाई है। वह अपने आप में एक इतिहास बन गया है। समूचे भारत में गांवों से लेकर शहरों में जो शंखनाद हुआ है. वह आशा से कहीं ज्यादा है. दरअसल यह आम आदमी कीपीड़ा है जो राजतंत्र और नौकरशाह के बीच पीस रही है. आज सरकारी तंत्र पूरी तरह मक्कारी पर उतर आयी है. काम छोटा हो या बड़ा दाम चुकाने प़ड़ते हैं.चाहे तो शासन इस पर अंकुश लगा सकता है किन्तु लगाने की किसी को चिंता ही नहीं है. महात्मा गांधी ने आजादी के पहले ही भ्रष्टाचार की कल्पना कर ली थी और उसी समय उन्होने चेताया था किन्तु उनकी बातों पर किसी ने गौर नहीं किया आज उसी की पीड़ा सारा भारत भोग रहा है. अन्ना के दबाव के आगे सरकार तो झुक जरुर गई है किन्तु क्या लोकपाल बिल संसद से पास होने के बाद भी सही ढंग से लागू हो पाएगा. इस बात पर लोग अभी भी संदेह कर रहे हैं. लोकपाल बिल पास होने से उच्च स्तर के भष्टाचार तो रुक जाएंगे किन्तु सबसे नीचे स्तर का क्या होगा. जिस तरह राजनैतिक पार्टियां यह संकल्प लेती है कि समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को शासन की योजनाओं का लाभ मिलना चाहिए उसी तरह लोकपाल बिल में जब तक यह उल्लेख नहीं होगा कि समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को भष्टाचार से मुक्त नहीं किया जाएगा तब तक इस बिल का कोई मायने नहीं है क्योकि आज सबसे ज्यादा पीड़ित यही वर्ग है जिसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती जब तक नीचे स्तर का भष्टाचार समाप्त नहीं होगा तब तक इस आंदोलन का कोई मायने नहीं है. छोटे से छोटे काम के लिए भेंट पूजा की बनी परंपरा का अंत होना जरुरी है.
अन्ना समर्थक इस बात से खुश हो रहे हैं कि हमने सरकार को हरा दिया है . सरकार और संसद में वही लोग काबिज हैं जिनके खिलाफ यह बिल लाने की तैयारी है. क्या कोई अपने लिए फांसी का फंदा तैयार करेगा यह विचारणीय सवाल है. संसद में जब बिल पर बहस हो रही थी तब घोटालों के आरोपों में फंसे सांसद बड़ी होशियारी से सफाई देकर अपने आपको पाक साफ बताने की जुगत भीड़ा रहे थे.भारत में यदि सचमुच में जनतंत्र लाना है तो न केवल भष्टाचार बल्कि हर उस मामले में नागरिकों की जागरुकता जरुरी है जो जनहित का मामला है. आज पूरा देश मजहब,जातिवाद, आरक्षण जैसे मुद्दों पर बटा हुआ है और राजनीतिज्ञ इसी बटवारा का लाभ उठाते आ रहे हैं.जनता जर्नादन को भष्टाचार के साथ ही इन मुद्दों पर भी सचेत रहने की जरुरत है ताकि अब उनका शोषण कोई भी न कर सके.
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