Monday, May 3, 2010

नक्सली हिंसा पर सरकार गंभीर नहीं

गत दिनों दंतेवाड़ा के चित्तलनार क्षेत्र में नक्सली हिंसा से ७६ जवानों की मौत के बाद जिस तरह से शासन तंत्र हरकत में आया था, उससे लगने लगा था मानों सरकार अब नक्सलियों का सफाया कर ही दम लेगी किन्तु समय बितने के साथ उन ७६ जवानों का बलिदान वृसि्मत किया जाने लगा है। सरकार एक बार फिर बैकफुट में चली गई है और नक्सली फिर बड़ीवारदात की तैयारी में जुट गये हैं। लगभग महीने भर का समय गुजर चुका है। न तो केन्दऱ सरकार और न ही राज्य सरकार यह निर्णय कर पायी है कि आखिर इस हिंसा का कैसे जबाव दिया जाए। हवाई हमले का निर्णय भी अब तक नहीं हो पाया है। जहां तक नक्सली हिंसा का जवाब देने का सवाल है। गर्मी का मौसम सबसे अनुकुल हो सकता है। क्योकि गर्मी में जंगल के पेड़ सूख चुके होते हैं और रास्ता आसान हो जाता है। सूखे पत्तों पर हल्की सी आवाज भी सुनाई पड़ जाती है। लेकिन सरकार और पुलिस अब तक चित्तलनार घटना का जवाब देने तैयार नहीं है। मई की शुरुआत हो चुकी है। जून के पहले सप्ताह में ही बस्तर में बारिश की बौछार पड़ने लगेगी। एक बार बारिश हुई तो जंगल में किसी आपरेशन को अंजाम नहीं दिया जा सकता।
आज नक्सल क्षेत्र दंतेवाड़ा के हालत की चर्चा करें तो पता चल जाएगा कि हालात काफी भयावह है। मेरे एक मित्र सरकारी सेवक के रुप में एक वर्ष दंतेवाड़ा में बिता कर लौटा है। वहां के हालात को देखकर उन्होंने तबादला नहीं होने की सूरत में अनिर्वाय सेवानिवृति ले ली है। उनका कहना है कि दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय होने के बाद भी पूरी तरह से दहशत के साये में सांसें ले रहा है। शाम ४ बजे से ही पूरा बाजार सूना हो जाता है। सकड़ें विरान हो जाती है।लोग किसी अज्ञात भय की आशंका से अपने घरों में दुबक जाते हैं, बाजार में आपको सब्जी भी नसीब नहीं होगा क्योंकि भारी तादात में उपलब्ध पुलिस के जवान सारी सब्जी खरीद कर ले जाते हैं। वहां रहने वालों के लिए कुछ बचता ही नहीं है। यह हालत रोज की है। नौकरी करने के लिए दंतेवाड़ा पहुंचने वाला आदमी अब कैसे अपनी दिनचर्या चलाएगा इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
मेरा मानना है कि सरकार सचमुच नक्सलियों का सफाया करना चाहती है तो पुलिस के तमाम बड़े अफसरों को बस्तर में ही अपना मुख्यालय बनाकर कैंप करना होगा। हर छोटे बड़े आपरेशन का संचालन जब तक बड़े पुलिस अधिकारी नहीं करेंगे तब तक जवानों का हौसला नहीं बढ़ाया जा सकता। जवान वही गलती बार-बार दुहराकर मौत का शिकार हो रहे हैं जो उन्हें नहीं करना चाहिए। दरअसल पुलिस का अभियान दिशाविहीन है। कोई भी आला अधिकारी फिल्ड में जाकर नक्सलियों से लोहा नहीं लेना चाहता। चूंकि पुलिस का कोई कप्तान नहीं है इसलिए अनमने और आधे मन से अभियान की शुरुआत होती है जिसका नतीजा पुलिस के खिलाफ ही होता है। नक्सली अभियान के आईजी स्तर के अधिकारी शहरों में रहकर नक्सलियों के खिलाफ अभियान का सूत्रधार बने हुए हैं जबकि होना यह चाहिए कि सभी वरिष्ठ अधिकारी, यहां तक डीजीपी विश्वरंजन तक को लगातार नक्सल पीडि़त क्षेत्र में ही रहकर पूरे अभियान की मानिटरिंग करनी चाहिए। इससे सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि दिशाहीन पुलिस को कार्य करने के लिए मार्गदर्शन हासिल होगा। पुलिस के बड़े अधिकारी के अलावा गृहमंत्री और गृहसचिव तक को नक्सल विरोधी अभियान का नेतृत्व करने फिल्ड में जाना चाहिए। मुख्यमंत्री रमन सिंह का एक बयान आया है कि पुलिस फोर्स गांववालों का दिल जीते। अभाव और तनाव की जिंदगी जी रहे पुलिस के जवान किस तरह से गांववालों से बेहतर संबंध बनाएगें। बलि्क होना यह चाहिए कि नेता और मंत्रीइस कार्य की शुरुआत स्वयं क्षेत्र में जाकर करें।
पूरे छत्तीसगढ़ में सुराज अभियान चला केवल नक्सल पीडि़त क्षेत्रों को छोड़कर क्या सरकार भारी सुरक्षा व्यवस्था के बीच यह अभियान उन क्षेत्रों में चलाकर आदिवासियों का दिल जीत सकती थी किन्तु सरकार की ओर से कोई उपऱकम ही नहीं किया गया। सुराज के बहाने सरकार सब जगह पहुंच सकती थी किन्तु सरकार की ओर से एेसा कोई कार्य ही नहीं किया गया। नक्सल विरोधी अभियान को सफल बनाने के लिए सरकार को आदिवासियों का दिल जीतना होगा। और यह तभी संभव है जब सरकार के नुमाइंदे आदिवासियों के बीच पहुंचे और उनके दुख दर्द में सहभागी बने। आज गांव वाले ही नक्सलियों के सबसे बड़े मददगार बने हुए हैं।इसके साथ ही शहरी इलाकों से जो रसद की आपूर्ति नक्सलियों को हो रही है उस पर अंकुश लगाना जरुरी है। सरकार को नक्सली क्षेत्र को सभी दिशाओं से सील करना होगा। उस क्षेत्र में पहुंचने वाले हर वाहनों की नियमित जांच कर रसद आपूर्ति पर बंदीश लगाई जा सकती है। नक्सलियों को खाने पीने का सामान रायपुर, दुर्ग, भिलाई जैसे शहरों से पहुंच रहा है। सरकार जब तक आर्थिक नाकेबंदी नहीं करेगी तब तक नक्सली हावी ही रहेंगे।
फिलहाल सरकार का रवैया से नहीं लगता कि नकसली हिंसा का कारगर जवाब सरकार के पास है। ७६ जवानो की मौत भूला दी गई है। आगे सरकार फिर किसी बड़ी हिंसा का इंतजार कर रही है जान पड़ता है। रमन सिंह और दिग्वीजय सिंह आज नक्सली मुद्दे पर तू-तू, मैं-मैं कर रहे हैं। बेहतर होता दोनों नेता एक साथ नक्सल पीडि़त क्षेत्र में जाते और सरकार से कहां चुक हुई इसका पता लगाकर उसे दूर करने का संयुक्त पहल करते। दरअसल राजनैतिक इच्छाशक्ित में कमी की वजह से यह समस्या आज विकराल रुप ले चुकी है। दिग्वीजय सिंह के कार्यकाल में ही यदि इस समस्या पर गंभीरता दिखाई गई होती तो शायद यह समस्या पांव पसारने के पहले ही दम तोड़ चुकी होती किन्तु राजनेता हर समस्या पर अपनी रोटी सेंकने से बाज नहीं आते। नक्सली मामला भी कुछ इसी तरह का है जिस पर सरकारें कभी गंभीर नहीं रही। खामियाजा आम नागरिक और पुलिस के जवानों को भुगतना पड़ रहा है। सरकार के लिए अभी भी अवसर है कि किसी बड़ी घटना होने के पुर्व ही बड़ी कार्यवाही कर नक्सलियों का कमर तोड़ दे ताकि फिर सिर उठाने का ताव उनमें न रहे.

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