Sunday, July 18, 2010

कैसे गढ़े जिंदगी

राज्य और केन्द सरकार शिक्षा व्यवस्था के लेकर काफी गंभीर नजर आ रही है इसीलिए शिक्षा अधिकार अधिनियंम सहित अन्य शिकंजा कसने की कवायद कर रही है। कोई बच्चा स्कूल जाने से न चूके राज्य सरकार उत्सव मना रही है और स्कूल जाबो पढ़े बर जिनगी ला गढे बर जैसे नारे दे रही है किन्तु आज क्या सचमुच सरकारी स्कूलों में बच्चों को जिंदगी संवर रही है। सरकारी स्कूल में वही लोग पहुंच रहे हैं जो सबसे गरीब हैं। जिनके पास दो जून की रोटी की जुगत है और थोड़ा बहुत भी पैसा है तो उसके बच्चे भी ठीकठाक स्कूल में पढ़ रहे हैं। सरकारी स्कूल केवल और केवल गरीबों के लिए है। कहते हैं कि गरीबों का कोई नहीं होता। उसी तरह इन सरकारी स्कूलों का कोई माईबाप नहीं है। हजारों लाखों की जीविका इन स्कूलों से चल रही है किन्तु क्या हर शख्स अपना फर्ज पूरी इमानदारी से निभा रहा है, बिल्कुल ही नहीं। आज सरकारी स्कूली के हालात देखने से ही अंदाजा हो जाएगा कि गरीबों के इस ज्ञानमंदिर में न तो भगवान है और न ही पुजारी। सरकारी स्कूलों की हालत उस मंदिर की तरह है जो बनकर तैयार तो हो गया है किन्तु न भगवान विराजमान है और न ही पूजा हो रही है। शिक्षाधिकारी, कलेक्टर, मंत्री, जनभागीदारी समिति सहित न जाने कितने नियंत्रण इन स्कूलों पर है किन्तु बरसों से इसकी व्यवस्था नहीं सुधर पायी है।
बच्चों को स्वस्थ रखने और पढ़ाई के लिए उत्साहित करने के लिए मध्यान्ह भोजन व्यवस्था लागू की गई। पहले भोजन बनाने का कार्य स्कूलों में ही होता था किन्तु बाद में सारी व्यवस्था ठेकेदारों को सौंप दिया गया, अब जिस कार्य की जिम्मेदारी ठेकेदारों के हाथ में हो वहां कमीशनखोरी का खेल तो खेला जाना स्वाभाविक ही है। पूरे शहर का खाना एक जगह ही बनता है और जेल के कैदियों को परोसे जाने वाले खाने से भी बदतर खाना बच्चों को परोसा जाता है। मीनू का पालन होना तो सपना है। शहर के स्कूलों में चांवल, दाल और सब्जी ही दिखता है। इस खाना को खाकर बच्चें अपना कितना मानसिक और शारीरिक विकास कर पाएंगे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। बरसात का मौसम स्कूल का मैदान, भिनभिनाती मक्खियों के बीच धूल और किचड़ में बच्चे मधायन्ह भोजन करते हैं। किसी शिक्षक को इतनी फुरसत नहीं है कि बच्चों के भोजन करने की व्यवस्था ठीक कर सके। पूरी व्यवस्था को सत्तारुढ़ भाजपा के नेताओं ने हाई जैक कर लिया है। दुर्ग छग के मध्यान्ह भोजन सप्लाई की जिम्मेदारी भाजपा नेत्रियों की गठित समिति की है जो बच्चों का निवाला छिनने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं।
जहां तक स्कूलों की स्थिति और हालत की बात है तो अधिकांश स्कूल भवन जर्जर हालत में है। कमरों की कमी है। एक-एक कमरे में ६०-७० बच्चों को बैठना पड़ता है। स्कूलों में पर्याप्त स्टाफ की व्यवस्था भी नहीं। शिक्षकों की ड्यूटी पढाने के अलावा अन्य कार्य में लगा दिया जाता है जिससे बच्चों की पढ़ाई ठप पड़ जाती है। कई स्कूलों में तो शिक्षक ही पढ़ाई में रुचि नहीं दिखाते। उनकी ऱुचि केवल नौकरी पकाने और तनख्वाह पाने तक सीमित होकर रह गया है। मैं एक स्कूल की एक एेसी शिक्षिका को जानता हू जो एक स्थानीय नेता की पत्नी है। सुबह के स्कूल में उसे ८ बजे उपसिथति देने और १०.३० बजे छुट्टी देने के स्पष्ट आदेश मंत्री का लिखित में स्कूल में है। अब इस व्यवस्था से क्या गरीबों के बच्चे होनहार बनकर अपना नाम रौशन कर पाएंगे।
हर शहर की आधी से अधिक आबादी गरीबों की है, सरकारी स्कूलों की संख्या भी काफी है किन्तु व्यवस्था पूरी तरह से चौपट है। न बच्चे ठीक से पढ़ रहे हैं और न ही उन्हें सही भोजन ही दिया जा रहा है। सरकार लुभावने नारे देकर बच्चों का आदर सत्कार तो कर सकती हैं किन्तु जब तक व्यवस्था पर कड़ाई का शिकंजा नहीं कसा जाएगा तब तक गरीबों को शिक्षा के अधिकार अधिनियम का सही लाभ नहीं मिल पाएगा। शिक्षकों की रुचि भी पढ़ाने में कम नेतागिरी में ज्यादा है। उन्हें केवल यही चिंता सताती है कि वेतन समय पर मिले, वेतनमान भी लगातार बढता ही रहे। बदले में वे क्या कर रहे हैं, यह न वह स्वयं सोच रहा है और न ही कोई देखने वाला है.

2 comments:

  1. ...प्रभावशाली अभिव्यक्ति!!!

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  2. बहुत बढ़िया राजेन्द्र भाई , इस कमीशन खोरी को और विस्तार देते तो और मज़ा आता मसलन कितने बच्चे दर्ज होते है , कितने के नाम का खाना बनता है कितनो के नाम से पैसे लिये जाते हैं आदि आदि ? जनता सब कुछ जानती है लेकिन क्या कर सकती है ।

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