Thursday, May 6, 2010
कैसी शांति, कैसा न्याय
देश के वैज्ञानिक, शिक्षा शास्त्रियों और समाज सेवियों का एक समूह नक्सलियों के खिलाफ ऑपरेशन गीनहंट को उचित नहीं मानता। शांति न्याय यात्रा पर आए यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष यशपाल, गुजरात विद्यापीठ के चांसलर नारायण देसाई, फिशर पीपुल के सलाहकार थामस कोचरी, बंधुआ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष स्वामी अग्निवेश, सर्व सेवा संघ के पूर्व अध्यक्ष राधा भट्ट शांति न्याय यात्रा पर रायपुर पहुंचे हैं। वे छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद को लेकर गहरी चिंता व्यक्त की है। उनका मानना है कि बंदूक की नोक पर समस्या का समाधान नहीं हो सकता। सरकार यदि नक्सलियों का सामना करने के लिए बंदूक का सहारा ले तो इन्हें इस तरह के जुमले याद क्यों आते हैं यह आश्चर्य का विषय है। नक्सली लगातार २० वर्षो से आदिवासी इलाकों में मौत की होली खेल रहा है। हर बार कोई न कोई निरीह व्यक्ति पर निशाना साधा जाता है। चाहे वह पुलिस के जवान हो या गांव का आदिवासी युवक कभी मुखबीर की आड़ में तो कभी एसपोओ के नाम पर मौत का घाट उतारा जा रहा है। फिर भी तथाकथित इन समाजसेवियों को सरकार की नाकामी और कमजोरी ही क्यों दिखती है। यह समझ से परे है। सचमुच यदि उनके दिलोदिमाग में नक्सली हिंसा को समाप्त करने की है तो पहले नक्सली क्षेत्र में जाकर इस समस्या से पनपी बेबसी का अध्ययन करें। उन अनाथ बच्चों को देखे जिनके मां-बाप, भाई-बहन नक्सली हिंसा का शिकार हो चुके हैं। उन शिविरों में जाएं जहां नक्सली आतंक का खौफ हर विस्थापित के चेहरे में पढ़ी जा सकती है। आज बस्तर विश्व के मानचित्र पर केवल नक्सली हिंसा के नाम पर जाना जाने लगा है जबकि अस्सी के दशक में यही बस्तर अपनी घोटुल संस्कृति की वजह पूरी दुनिया में अबूज पहेली बना हुआ था। अबूझमाड़ का वह इलाका जहां बिना अनुमति जाने पर पाबंदी थी आज उस बस्तर की छवि धूमिल हो चुकी है। आज बस्तर को केवल नक्सली हिंसा के नाम पर ही जाना जाता है। आज यह अनुमान लगा पाना मुश्किल जान पड़ता है कभी यह इलाका शांत रहा होगा। जहां तक मुझे याद है हम १९८४-८५ में स्वछंद हो कर देर रात्रि को भी दरभा घाटी में जंगली जानवर देखने का मोह लेकर चक्कर मारने से भी नहीं चूकते थे किन्तु आज शाम होते ही उस मार्ग पर चलने का साहस ही शायद कोई जुटा पाए। हर गांव में आिदवासियों के सीधे पन को देखा जा सकता था किन्तु अब वही बस्तर झुलस रहा है। नक्सलवाद का घिनौना चेहरा आतंकवाद को भी पीछे छोड़ता नजर आ रहा है। बस्तर वासियों की आंखें सूख चुकी है। उनके समक्ष एक तरफ कुंआ तो दूसरे तरफ खाई है। दो पाटन के बीच पीस रहे लोगों का दुख दर्द बांटने वाला आज कोई नहीं है। यदि इन समाजसेवियों के बीच कोई अपनी बात कहता है तो यह कहा जाता है कि सरकार के नुमाइंदे हैं। मैं नक्सली मुद्दे पर सरकार को कार्यो का पक्षधर नहीं हूं किन्तु क्या सिर्फ रमन सरकार ही इस मुद्दो पर दोषी है। क्या हम बुध्दिजीवीयों ने भी इस मामले के साथ न्याय किया है। किसी न किसी तरीके से छद्म मानसिकता के लोगों ने इस मामले को हवा दी है और अब सारा दोष सरकार बर मढ़ा जा रहा है। क्या पर नागरिक का यह फर्ज नहीं बनता कि नक्सली हिंसा में वे सरकार का साथ दे और चंद मुट्ठिभर लोगों को सबक सिखा दें और बता दें कि हिंसा से किसी समस्या का समाधान संभव ही नहीं है। दूसरी तरफ इन तत्वों को बख्शे जाने की भी जरुरत नहीं है क्योकि यदि इन्हें बख्श दिया गया तो उन हजारों हत्याओं का पाप सरकार के सिर पर ही चढ़ेगा.
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